हिन्दी भाषा का विमर्श और संघर्ष लम्बा है, लेकिन अभाग्यवश हमारा निपट वर्तमान पर आग्रह इतना इकहरा हो गया है कि उसकी परम्परा को भूल ही जाते हैं। एक युवा चिन्तनशील आलोचक ने विस्तार से इस विमर्श और संघर्ष के कई पहलू उजागर करने की कोशिश की है और कई विवादों का विवरण भी सटीक ढंग से दिया है। हम इस प्रयत्न को बहुत प्रासंगिक मानते हैं और इसलिए इस पुस्तक माला में सहर्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।
Rajeev Ranjan Giri
बिहार के एक गाँव भादा (पूर्वी चम्पारण) में १९ दिसम्बर १९७८ को जन्म। शुरुआती शिक्षा गाँव में। एम. ए. में सर्वोच्च स्थान। दिल्ली विश्वविद्यालय से पी-एच. डी.। तद्भव, आलोचना, प्रतिमान, वाक्, वागर्थ, हंस, अकार इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक निबन्ध व अनुवाद प्रकाशित। कुछेक निबन्ध संस्कृत, उर्दू, उडिय़ा, अँग्रेज़ी और जर्मन में अनूदित। संवेद के पचास से अधिक अंकों का सह-सम्पादन। वर्तमान सन्दर्भ के ‘स्त्री मुक्ति : यथार्थ और यूटोपिया’ विशेषांक का अतिथि सम्पादन। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट, नयी दिल्ली के हिन्दी-अँग्रेज़ी जर्नल अनासक्ति दर्शन के ‘भूदान विशेषांक’ का सम्पादन। तीन वर्षों तक साहित्यिक मासिक पत्रिका पाखी में ‘अदबी हयात’ स्तम्भ लेखन। गांधी दर्शन की मासिक पत्रिका अन्तिम जन का तीन वर्षों तक सम्पादन। अभिधा के सम्पादक मण्डल से सम्बद्ध। नेशनल बुक ट्रस्ट की पत्रिका पुस्तक संस्कृति के सलाहकार। प्रकाशित कृतियाँ गांधीवाद रहे न रहे, अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग, संविधान सभा और भाषा विमर्श, लघु पत्रिका आन्दोलन, सामन्ती ज़माने में भक्ति आन्दोलन; १८५७ : विरासत से जिरह, प्रेमचन्द : सम्पूर्ण बाल साहित्य एवं पुरुषार्थ, त्याग और स्वराज सहित पाँच सम्पादित पुस्तकें। कुछेक साल सेंट स्टीफैंस कॉलेज, दिल्ली में अध्यापन के बाद फिलहाल राजधानी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) नयी दिल्ली में अध्यापन।
Rajeev Ranjan Giri
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