हिन्दी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता एक ऐसा विषय है जिस पर लगातार कई दृष्टियों से विचार करने की ज़रूरत है क्योंकि ऐसे वैचारिक अनुसन्धान से ही हम उन कई प्रश्नों के उत्तर पा सकते हैं जो हमें बेचैन किये रहते हैं। हिन्दी में बार-बार व्याप रही विस्मृति, जातीय स्मृति की अनुपस्थिति आदि ऐसे कई पक्ष हैं जो आलोचना के ध्यान में बराबर रहने चाहिए। डॉ. राजकुमार की यह नयी पुस्तक ऐसे आलोचनात्मक उद्यम की ही उपज है और हम उसे सहर्ष प्रकाशित कर रहे हैं।
Dr. Rajkumar
जन्म सन् 1961 के सावन महीने की नागपंचमी को इलाहाबाद (अब कौशाम्बी) जि़ले के एक गाँव में। बी.ए. की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। यहीं सामाजिक सरोकारों और साहित्य में गहरी संलग्नता उत्पन्न हुई। कुछ वर्ष ‘जन संघर्ष’ करने के उपरान्त जे.एन.यू. नयी दिल्ली से एम.ए., एम.फिल. और पी-एच.डी.। चार पुस्तकें प्रकाशित। अनेक चर्चित लेख हिन्दी की सभी उल्लेखनीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। फिलहाल देशभाषा की अप्रकाशित पाण्डुलिपियों, दुर्लभ ग्रन्थों और लोक-विद्या के नाना रूपों के संकलन, अध्ययन और सम्पादन की वृहद् परियोजना में सक्रिय। प्रकाशित पुस्तकें : आधुनिक हिन्दी साहित्य का चौथा दशक, साहित्यिक संस्कृति और आधुनिकता, कहानियाँ रिश्तों की: दादा-दादी, नाना-नानी (सम्पादित), उत्तर औपनिवेशिक दौर में हिन्दी शोधालोचना (सम्पादित) सम्प्रति : प्रोफेसर हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। समन्वयक यू.जी.सी.इन्नोवेटिव प्रोग्राम फॉर ट्रॉन्सलेशन स्किल, बी.एच.यू.
Dr. Rajkumar
Rajkamal Parkashan Pvt Ltd