BEDI SAMAGRA (1-2) (HB)

Author:

Rajendra Singh Bedi

Publisher:

Rajkamal Parkashan Pvt Ltd

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Publisher

Rajkamal Parkashan Pvt Ltd

Publication Year 1995
ISBN-13

9788126719990

ISBN-10 9788126719990
Binding

Hardcover

Number of Pages 993 Pages
Language (Hindi)
मरी हुई कुतिया को सूँघकर आगे बढ़ जानेवाला कुत्ता बिम्ब है इसका कि ‘मर्दों की ज़ात एक जैसी होती है’, और यहीं से आगे बढ़ता है राजेंद्रसिंह बेदी का जगप्रसिद्ध उपन्यास ‘एक चादर मैली-सी’ जिसे पढ़कर कृश्णचन्दर ने लिखा था—“कमबख़्त, तुझे पता ही नहीं, तूने क्या लिख दिया है।’’ प्रेमचन्द की आदर्शवादी, यथार्थवाद की परम्परा को आगे बढ़ाने, उसे समृद्ध बनानेवाला यह उपन्यास, जिसे उर्दू के पाँच श्रेष्ठतम उपन्यासों में गिना जाता है, हमारे सामने पंजाब के देहाती जीवन का एक यथार्थ चित्र उसकी तमाम मुहब्बतों और नफ़रतों, उसकी गहराइयों और व्यापकताओं, उसकी पूरी-पूरी सुन्दरता और विभीषिका के साथ तह-दर-तह प्रस्तुत करता है और मन पर गहरी छाप छोड़ जाता है। यह अनायास ही नहीं कहा जाता कि बेदी ने और कुछ न लिखा होता तो भी यह उपन्यास उन्हें उर्दू साहित्‍य के इतिहास में जगह दिलाने के लिए काफ़ी था। और यही परम्परा दिखाई देती है उनके एकमात्र नाटक-संग्रह ‘सात खेल’ में। कहने को ये रेडियो के लिए लिखे गए नाटक हैं जिनमें अन्यथा रचना-कौशल की तलाश करना व्यर्थ है, मगर इसी विधा में बेदी ने जो ऊँचाइयाँ छुई हैं, वे आप अपनी मिसाल हैं। मसलन नाटक आज कभी न आनेवाले कल या हमेशा के लिए बीत चुके कल के विपरीत, सही अर्थों में बराबर हमारे साथ रहनेवाले ‘आज’ का ही एक पहलू पेश करता है जिसे हर पीढ़ी अपने ढंग से भुगतती आई है। या नाटक ‘चाणक्य’ को लें जो इतिहास नहीं है बल्कि कल के आईने में आज की छवि दिखाने का प्रयास है। और ‘नक़्ले-मकानी’ वह नाटक है जिसकी कथा अपने विस्तृत रूप में फ़िल्म ‘दस्तक’ का आधार बनी थी, एक सीधे-सादे, निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी को उसकी तमाम गहराइयों के साथ पेश करते हुए। उर्दू के नाटक-साहित्य में ‘सात खेल’ को एक अहम मुकाम यूँ ही नहीं दिया जाता रहा है। प्रस्तुत खंड में बेदी की फुटकर रचनाओं का संग्रह ‘मुक्तिबोध’ और पहला कहानी-संग्रह ‘दान-ओ-दाम’ भी शामिल हैं। जहाँ ‘दान-ओ-दाम’ बेदी के आरम्भिक साहित्यिक प्रयासों के दर्शन कराता है जिनमें ‘गर्म कोट’ जैसी उत्तम कथाकृति भी शामिल है, वहीं ‘मुक्तिबोध’ को बेदी की पूरी कथा-यात्रा का आख़िरी पड़ाव भी कह सकते हैं और उसका उत्कर्ष भी, जहाँ लेखक की कला अपनी पूरी रंगारंगी के साथ सामने आती है और ‘मुक्तिबोध’ जैसी कहानी के साथ मन को सराबोर कर जाती है।

Rajendra Singh Bedi

राजेंद्रसिंह बेदी जन्म: लाहौर, 1 सितम्बर, 1915। शिक्षा: डी.ए.वी. कॉलेज से इंटरमीडिए। 1932 में छात्रावस्था में मोहसिन लाहौरी के नाम से अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी में नज़्में और कहानियाँ लिखीं। विवाह: 1934 में, 19 वर्ष की अवस्था में, सोमवती से। नौकरी: 1932 से लाहौर डाकखाने में क्लर्की और 1943 में त्यागपत्र। फिर छह माह तक दिल्ली में सरकार के प्रचार विभाग में नौकरी। इसके बाद ऑल इंडिया रेडियो, लाहौर में आर्टिस्ट के रूप में नियुक्ति। 1948 में दिल्ली आ गए। इसके पहले 1946 में खुद का प्रकाशनगृह चलाने की नाकाम कोशिश। 1949 में बंबई चले गए जहाँ जीवन के अनत तक फिल्मों से जुड़े रहे। पुरस्कार: साहित्य अकादमी पुरस्कार, मोदी ग़ालिब पुरस्कार, और अनेक राज्यों के विशिष्ट पुरस्कारों से सम्मानित। भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित। मृत्यु: फ़ालिज़ के दूसरे हमले के बाद 12 सितम्बर, 1984 को।
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