Publisher |
Rajkamal Parkashan Pvt Ltd |
Publication Year |
2004 |
ISBN-13 |
9788126708980 |
ISBN-10 |
9788126708980 |
Binding |
Hardcover |
Number of Pages |
230 Pages |
Language |
(Hindi) |
जो आगे हैं दियरा की बलुआही ज़मीन हो या टाल की रेतीली धरती, दक्षिण का सपाट, मैदानी इलाक़ा हो या उत्तर की नदियाई भूमि, बिहार के गांव का अतीत जाने बगैर कैसे कोई बिहार के वर्तमान को समझने का दावा कर सकता है ! न जाने कितने दशक बिहार की मेहनतकश आबादियां अपने अधिकारों से वंचित रही हैं। थोड़े-से असरदार लोगों ने सत्ता और समाज को अपनी मुट्ठी में क़ैद रखा है। हाशिए पर पड़ी कमज़ोर इंसानी ज़िंदगियां काली ताक़तों से मुकाबला करने की हिम्मत जुटाती रही हैं। बिहार के गांव की इस तल्ख़ सच्चाई से रू-ब-रू हुए बिना कोई इसकी तक़दीर लिखने की कोशिश करे, तो यह कोशिश कैसे कामयाब होगी। हाल के वर्षों में, बिहार के गांव में बदलाव की जो बयार चली है, उसे शीत-भवनों में बैठकर नहीं आंका जा सकता। शीत-भवनों में तैयार किए गए गणित ज़मीन से कटे होने पर, अख़बार की सुर्खियों में या टेलीविज़न के पर्दे पर थोड़ी देर के लिए ज़रूर जगह पा सकते हैं, मगर ये गणित सच्चाई का रूप नहीं ले सकते। सच्चाई का रूप तो ये तभी लेंगे, जब इसके गणितकार कमज़ोर तबक़ों की हक़मारी का अपना सदियों पुराना राग अलापना छोड़ दें। जाबिर हुसेन ने जो भी लिखा है, अपने संघर्षपूर्ण सामाजिक सरोकारों की आग में तपकर लिखा है।
Jabir Husain
Rajkamal Parkashan Pvt Ltd