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Publisher | Vani Prakashan |
Publication Year | 2021 |
ISBN-13 | 9789390678877 |
ISBN-10 | 9390678870 |
Binding | Hardcover |
Number of Pages | 160 Pages |
Language | (Hindi) |
सेक्स (यौनता) और लैंगिकता भिन्न है। सेक्स यानी यौनता जैविक शरीर केन्द्रित है पर लिंग (जेंडर) इच्छा केन्द्रित है। लैंगिकता बदलती है प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा के अनुसार। स्त्री होने पर भी स्त्री के प्रति लैंगिक इच्छा होना, पुरुष का पुरुष के प्रति, उसी प्रकार कुछ लोगों को स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति लैंगिक इच्छा होना स्वाभाविक है। पर समाज के लिए ये सब विकृतियाँ हैं, अस्वाभाविक हैं और असामाजिक हैं। उनकी मान्यता यह है कि बहुसंख्यक लोगों की वृत्तियाँ ही प्रकृत हैं, शेष सब विकृत यानी कि अस्वाभाविक एवं निन्दनीय। सचमुच यह सही नहीं। उन सारी विकृतियों को प्रकृत मानने की क्षमता जब समाज हासिल करता है तभी वह समाज सभ्य बनता है। वहाँ सबकी स्वीकृति समान रूप से होती है, होनी चाहिए। यद्यपि लेस्बियन, गे, बाई-सेक्सुअल और ट्रांसजेंडर समाज में पहले ही वर्तमान थे तथापि इन्हें निन्दनीय समझा जाता था। इसलिए वे छिपे रहे। समाज विपरीत रति को ही मान्यता देता था। पर ज्ञानस्थिति के परिणामस्वरूप इन रुचिभेद वालों ने समझ लिया कि हम भी प्रकृत हैं, विकृत नहीं।
K.Vanja
Vani Prakashan