Kahat Kabeer

Author:

Harishankar Parsai

Publisher:

Rajkamal Parkashan Pvt Ltd

Rs180 Rs199 10% OFF

Availability: Available

    

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Publisher

Rajkamal Parkashan Pvt Ltd

Publication Year 2017
ISBN-13

9788126728534

ISBN-10 9788126728534
Binding

Paperback

Number of Pages 295 Pages
Language (Hindi)
Dimensions (Cms) 20 x 14 x 4
Weight (grms) 130
हरिशंकर परसाई के व्यंग्य को श्रेष्ठतम इसलिए कहा जाता है कि उनका उददेश्य कभी पाठक को हँसाना भी नहीं रहा ! न उन्होंने हवाई कहानियां बनीं, न ही तथ्यहीन विद्रूप का सहारा लिया ! अपने दौर की राजनितिक उठापठक को भी वे उतनी ही जिम्मेदारी और नजदीकी से देखते थे जैसे साहित्यकार होने के नाते आदमी के चरित्र को ! यही वजह है कि समाचार-पत्रों में उनके स्तंभों को भी उतने ही भरोसे के साथ, बहैसियत एक राजनितिक टिप्पणी पढ़ा जाता था जितने उम्मीद के साथ उनके अन्य व्यग्य-निबंधो को ! इस पुस्तक में उनके चर्चित स्तम्भ 'सुनो भई साधो' में प्रकाशित 1983-84 के दौर की टिप्पणियां शामिल हैं ! यह वह दौर था जब देश खालिस्तानी आतंकवाद से जूझ रहा था ! ये टिप्पणियां उस पुरे दौर पर एक अलग कोण से प्रकाश डालती हैं, साथ ही अन्य कई राजनितिक और सामाजिक घटनाओं का उल्लेख भी इनमें होता है ! जहीर है खास परसाई-अंदाज में ! मसलन, 21 नवम्बर, 83 को प्रकाशित 'चर्बी, गंगाजल और एकात्मता यज्ञ' शीर्षक लेख की ये पंक्तियाँ ! "काइयां सांप्रदायिक राजनेता जानते हैं कि इस देश का मूढ़ आदमी न अर्थनीति समझता, न योजना, न विज्ञान, न तकनीक, न विदेश नीति ! वह समझता है गौमाता, गौहत्या, चर्बी, गंगाजल, यज्ञ ! वह मध्ययुग में जीता है और आधुनिक लोकतंत्र में आधुनिक कार्यकर्म पर वोट देता है ! इस असंख्य मूढ़ मध्ययुगीन जान पर राज करना है तो इसे आधुनिक मत होने दो !"

Harishankar Parsai

हरिशंकर परसाई जन्म: 22 अगस्त, 1924। जन्म-स्थान: जमानी गाँव, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश)। मध्यवित्त परिवार। दो भाई, दो बहनें। स्वयं अविवाहित रहे। मैट्रिक नहीं हुए थे कि माँ की मृत्यु हो गई और लकड़ी के कोयले की ठेकेदारी करते पिता को असाध्य बीमारी। फलस्वरूप गहन आर्थिक अभावों के बीच पारिवारिक जिम्मेदारियाँ। यहीं से वास्तविक जीवन-संघर्ष, जिसने ताकत भी दी और दुनियावी शिक्षा भी। फिर भी आगे पढ़े। नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए.। फिर ‘डिप्लोमा इन टीचिंग’। प्रकाशित कृतियाँ: हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी-संग्रह); रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज (उपन्यास); तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, वैष्णव की फिसलन, पगडंडियों का ज़माना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, विकलांग श्रद्धा का दौर (सा.अ. पुरस्कार); तुलसीदास चंदन घिसैं, हम इक उम्र से वाकिफ हैं, जाने -पहचाने लोग (व्यंग्य निबंध-संग्रह)। रचनाओं के अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में। ‘परसाई रचनावली’ शीर्षक से छह खंडों में रचनाएँ संकलित। निधन: 10 अगस्त, 1995.
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