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Publisher | Rajkamal Parkashan Pvt Ltd |
Publication Year | 2023 |
ISBN-13 | 9788126727094 |
ISBN-10 | 8126727098 |
Binding | Paperback |
Edition | 2nd |
Number of Pages | 139 Pages |
Language | (Hindi) |
Dimensions (Cms) | 22.5X14.5X1.5 |
Weight (grms) | 152 |
‘एक औरत की नोटबुक’ नारीवाद के एक महत्त्वपूर्ण सूत्र ‘द पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ (The Personal is Political) को वाणी देती है—जहाँ स्त्री के वैयक्तिक यथार्थ का विस्तार समाज की नीतिसम्मत सत्ता से जा जुड़ता है। इस पुस्तक के आलेख अगर पुरुष वर्चस्व और स्त्री सशक्तीकरण के चिन्तन को अपना विषय बनाते हुए स्त्री को उसके ‘क्लोज़ेट’ (बन्द कमरे) से बाहर लाने का प्रयास करते हैं तो इसकी कहानियाँ उस ‘क्लोज़ेट’ के अन्दर डरी-सहमी बैठी स्त्री की त्रासद दशा का जीवन्त प्रस्तुतिकरण करती हैं—सुधा अरोड़ा के एक्टिविस्ट सरोकार के साथ उनकी सृजनात्मक प्रतिभा को प्रदर्शित करती हुई।—डॉ. दीपक शर्मा ,यह किताब एक सामाजिक दायित्व को निभाती है। जो लेखिका पिछले पैंतालीस वर्षों से निरन्तर लिख रही हो, जिसका लेखन-स्तर अपनी स्तरीयता से कभी डिगा न हो, जिसकी क़लम की धार समय के साथ-साथ पैनी होती गई हो, और कहानियाँ लिखने के अतिरिक्त जिसकी सामाजिक चेतना और सामाजिक समझ ने उसे ज़मीनी सामाजिक कार्यों से जोड़ रखा हो, उसकी हर नई किताब अपना परिचय ख़ुद होती है। —शालिनी माथुर, ‘एक औरत की नोटबुक’ का जन्म सदियों की ख़ामोशी के टूटने की प्रक्रिया से होता है। ये वे आवाज़ें हैं जो इतिहास द्वारा युगों से दबाई जाती रही हैं। यह चुप्पी जब टूटती है तो इसकी दरारों से जो सच झाँकता है, वह हमारे समाज को नंगा करनेवाला है। इतिहास द्वारा इस ख़ामोशी के जाल को निर्मित करने की एक लम्बी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा स्त्री-व्यवहार का अनुकूलन किया गया और इस प्रकार समाज के आधे तबक़े को मानवाधिकारों से वंचित किया गया। —सुनीता गुप्ता, चर्चित कथाकार और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सुधा अरोड़ा की पुस्तक—‘एक औरत की नोटबुक’ में धैर्य, संस्कार, विवशता की परतों के नीचे छुपी वे सच्चाइयाँ हैं जिनकी भोक्ता औरतें हैं। सुधा पहले कथाकार हैं फिर सक्रिय कार्यकर्ता, स्त्री-सरोकारों की पक्षधर। इसीलिए वे जहाँ भी जाती हैं, जो भी देखती हैं, उनका सृजनशील व्यक्तित्व हमेशा चौकस और सक्रिय रहता है। यही वजह है कि उनका विमर्श बोझिल और उबाऊ नहीं होता। वसुधा अरोड़ा कहानियाँ गढ़ती नहीं हैं, वे प्रामाणिक प्रसंगों को चुनती हैं और अपने पक्ष को मार्मिक बनाती हैं। याद यह भी रखना होगा कि मार्मिकता और भावुकता में बड़ा फ़र्क़ होता है, सुधा ने जहाँ अपना पक्ष रखते हुए अपने को भावुकता से बचाया है, वहीं यह किताब पाठक को वैचारिक उत्तेजना से आवेशित करती है। —डॉ. प्रमोद त्रिवेदी
Sudha Arora
Rajkamal Parkashan Pvt Ltd