Publisher |
Vani Prakashan |
Publication Year |
2008 |
ISBN-13 |
9788181438508 |
ISBN-10 |
8181438507 |
Binding |
Hardcover |
Number of Pages |
240 Pages |
Language |
(Hindi) |
Weight (grms) |
381 |
आज इस सत्य से आँखें नहीं चुरायी जा सकतीं कि साहित्य से आम आदमी धीरे-धीरे कट-सा गया है तथा आलोचना लिखी हुई भाषा तक सीमित रह गयी है। वह जनता और उसके सरोकरों से जुट नहीं पा रही है। किसी रचनाशीलता के विषय में कुछ नया सोचना और कहना, आलोचक के लिए असंभव क्यों है? पुरानी-से-पुरानी लिखी कविता, कहानी या उपन्यास को अपने समय और परिवेश के साथ जोड़ कर, उसमें अपने काल की समस्याओं का निदान क्यांे नहीं तलाश पा रहे हैं? रचना और आलोचना के बीच आज इतनी विषम खाई क्यों है? आलोचना पथ से भटकी, अन्तर्विरोधों से ग्रसित तथा सन्दिग्ध क्यों हो गयी है? ऐसे अनेक सवाल हैं जो बार-बार सोचने पर विवश करते हैं। आलोचना को सृजनात्मकता आर संवेदनशीलता से युक्त कैसे बनायें? तथा इसे ‘कोरी लठभाँजी’ से कैसे दूर रखें। सृजनात्मक तथा आत्मिक संवदेनशीलता के बिना उसमें पठनीयता और रोचकता नहीं आ सकती है। इसके साथ ही उसमें तार्किकता और वैचारिकता का अदृश्य सम्मिश्रण यदि नहीं जुड़ा तो सम्मोहन की शक्ति के अभाव में वह पाठक को बांध कर अपने साथ नहीं रख सकती। यदि इन सबको हम साध सकें तभी आलोचना में रचनात्मक साहित्य की तरह बार-बार पढ़ने की उत्सुकता जगेगी। रचना कुमार पाण्डेय की यह पुस्तक इसी धर्म को निभाने की कोशिश का एक विनम्र प्रयास है।
Ratan Kumar Pandey
Vani Prakashan