‘हाकिम सराय का आख़िरी आदमी’ वर्तमान गाँवों की उस बदहाल स्थिति से परिचित कराता है, जहाँ विकास के नाम पर, परंपरागत उद्योग-धंधों को उजाड़ दिया गया है। जहाँ की भाईचारा को दरका दिया गया है। जहाँ लंगोटिये यार भी सांप्रदायिक विभाजन के शिकार हो गए हैं। जहाँ शिक्षा के व्यवसायीकरण ने ग़रीब मेधावी बच्चों के लिए दरवाज़े बंद कर लिए हैं। गाँव का सामंती वर्ग-चरित्र ग़रीबों पर अपनी अलग सत्ता क़ायम किए हुए है, जो कानून की सत्ता से अलहदा है। पारिवारिक रिश्ते सीझ रहे हैं। गँवई सरलता ने भृकुटी निकाल ली है। साँझ के सन्नाटे की शक्ल भुतहा नज़र आ रही है। ये कहानियाँ बदलती दुनिया में भुला दिए गए गाँवों का एक्सरे हैं।
Subhash Chandra Kushwaha
जन्म : 26 अप्रैल, 1961 को ग्राम जोगिया जनूबी पट्टी, फाजिलनगर, कुशीनगर, (उत्तर प्रदेश)में। शिक्षा : स्नातकोत्तर (विज्ञान) सांख्यिकी। प्रकाशित पुस्तकें : ‘आशा’, ‘कैद में है जि़न्दगी’, ‘गाँव हुए बेगाने अब’ (कविता); ‘हाकिम सराय का आखिरी आदमी’, ‘बूचड़खाना’, ‘होशियारी खटक रही है’, ‘लाला हरपाल के जूते और अन्य कहानियाँ’ (कहानी); ‘चौरी चौरा : विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन’ (इतिहास); ‘कथा में गाँव’, ‘जातिदंश की कहानियाँ’, ‘कथादेश’ साहित्यिक पत्रिका का किसान विशेषांक—‘किसान जीवन का यथार्थ : एक फोकस’ तथा ‘लोकरंग वार्षिकी’ का 1998 से निरन्तर सम्पादन। सम्मान : ‘सृजन सम्मान’, ‘प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान’, ‘आचार्य निरंजननाथ सम्मान’ आदि।
Subhash Chandra Kushwaha
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