Publisher |
Rajkamal Parkashan Pvt Ltd |
Publication Year |
2020 |
ISBN-13 |
9789389598735 |
ISBN-10 |
9789389598735 |
Binding |
Paperback |
Number of Pages |
360 Pages |
Language |
(Hindi) |
Dimensions (Cms) |
20 x 14 x 4 |
Weight (grms) |
380 |
लोकप्रिय फिक्शन के जादूगर कथाकार सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा के इस खंड में उनके जीवन के उस दौर का वर्णन है, जब वे पाठकों में व्यापक स्वीकृति और प्रसिद्धि पा चुके थे। यह उनका लेखकीय जीवन है जिसमें प्रकाशकों से उनके रिश्ते और प्रशंसकों-पाठकों की बातें आई हैं। गम्भीर और साहित्यिक हिन्दी समाज, लेखकों और पाठकों के लिए इस आत्मकथा से गुजरना निश्चय ही एक समानान्तर संसार में जाना होगा, लेकिन यह यात्रा लगभग जरूरी है। खास तौर पर यह जानने के लिए कि लेखन की वह प्रक्रिया कैसे चलती है जिसमें पाठक की उपस्थिति बहुत ठोस होती है। अपने पाठकों के चहेते लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की बढ़ती प्रसिद्धि के दिनों के खट्टे मीठे क़िस्से और उनकी दुनियादारी की सत्यकथा। प्रशंसकों की दीवानगी के हैरान कर देने वाले क़िस्सों को उतने ही दिलचस्प तरीके से बयान करती है आत्मकथा की यह तीसरी कड़ी। पाठकों की ही नहीं, प्रकाशकों से भी बनते-बिगड़ते रिश्तों की भी बेबाक यादें शामिल। लेखक कैसे अपने पाठकों के दिलों का बादशाह बन जाता है, एक लेखक के लिए उसके पाठक का क्या और कितना महत्त्व है-जाननने के लिए एक रोचक किताब।
Surendra Mohan Pathak
सुरेन्द्र मोहन पाठक का जन्म 19 फ़रवरी, 1940 को खेमकरण, अमृतसर, पंजाब में हुआ। विज्ञान में स्नातक की उपाधि लेने के बाद आप ‘इंडियन टेलीफ़ोन इंडस्ट्रीज़’ में नौकरी करने लगे। पढ़ने के शौक़ीन पाठक जी ने मात्र 20 वर्ष की उम्र में ही अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त उपन्यासकार इयान फ्लेमिंग रचित ‘जेम्स बांड’ सीरीज़ और जेम्स हेडली चेज़ (James Hadley Chase) के उपन्यासों का अनुवाद करना शुरू कर दिया था। सन् 1949 में आपकी पहली कहानी, ‘57 साल पुराना आदमी’, ‘मनोहर कहानियाँ’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। आपका पहला उपन्यास ‘पुराने गुनाह नए गुनाहगार’ सन् 1963 में ‘नीलम जासूस’ नामक पत्रिका में छपा था। 1963 से 1969 तक आपके उपन्यास विभिन्न पत्रिकाओं में छपते रहे। सुरेन्द्र मोहन पाठक के सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘असफल अभियान’ और ‘खाली वार’ थे। इनके प्रकाशन के बाद पाठक जी प्रसिद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गए। इसके बाद अब तक पीछे मुड़कर नहीं देखा है। 1977 में छपे आपके उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ की अब तक ढाई लाख प्रतियाँ बिक चुकी हैं। जब इसका अनुवाद अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ, तब इसकी ख़बर ‘टाइम’ मैगज़ीन में भी प्रकाशित हुई। पाठक जी के अब तक 300 से अधिक उपन्यास छप चुके हैं और वे अपने शुरुआती जीवन की कथा ‘न बैरी न कोई बेगाना’ और लेखकीय जीवन के सबसे हलचल वाले दिनों की कथा ‘हम नहीं चंगे बुरा न कोय’ नाम से लिख चुके हैं।
Surendra Mohan Pathak
Rajkamal Parkashan Pvt Ltd